22-10-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"सदा दाता के बच्चे दाता बनो"

सदा दया के सागर, कृपालु शिव बाबा बोले:

''आज दया के सागर अपने मास्टर दया के सागर बच्चों से मिलने आये हैं। भक्त लोग बापदादा को और आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का दयालु-कृपालु इसी नाम से गायन करते हैं। बापदादा से वा आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं से सर्व धर्म की आत्मायें एक मुख्य चीज़ जरूर चाहते हैं। ज्ञान और योग की बातें हर धर्म में अलग-अलग हैं, जिसको कहा जाता है - मान्यतायें। लेकिन एक बात सब धर्मों में एक ही है, सर्व आत्मायें दया वा कृपा जिसको वे अपनी भाषा में ब्लैसिंग कहते हैं, यह सब चाहते हैं। आप सभी आत्माओं से अब लास्ट जन्म में भी आपके भक्त यही चाहते हैं - जरा-सी कृपा दृष्टि कर लो। जरा जमारे ऊपर भी दया कर लो। सर्व धर्मों की मूल निशानी दया मानते हैं। अगर कोई भी धमार्क आत्मा दयालु नहीं वा दया दृष्टि वाला नहीं तो उसको धमार्क नही मानते हैं। धर्म अर्थात् दया। तो आज बापदादा दयालु और कृपालु कहाँ तक बने हैं-वह देख रहे हैं।

सभी ब्राह्मण आत्मायें अपने को आदि सनातन प्राचीन धर्म की श्रेष्ठ आत्मायें अर्थात् धर्मात्मा मानते ही हो। तो, हे धर्मात्मायें, आप सबका पहला धर्म अर्थात् धारणा है ही स्व के प्रति, ब्राह्मण परिवार के प्रति और विश्व की सर्व आत्माओं के प्रति दया भाव और कृपा दृष्टि। तो अपने आप से पूछो कि सदा दया की भावना और कृपा दृष्टि सर्व के प्रति रहती है वा नम्बरवार रहती है? दया भाव वा कृपा दृष्टि किस पर करनी होती है? जो कमजोर आत्मा है, अप्राप्त आत्मा है, किसी-न-किसी बात के वशीभूत आत्मा है - ऐसी आत्मायें दया वा कृपा की इच्छा रखती हैं वा उनकी इच्छा न भी हो तो आप दाता के बच्चे उन आत्माओं को शुभ-इच्छा से देने वाले हो। सारे दिन में जिन भी आत्माओं के सम्पर्क में आते हो, चाहे ज्ञानी, चाहे अज्ञानी, सबके प्रति सदा यही दृष्टि रहती है वा दूसरी-दूसरी दृष्टि भी रहती है? चाहे कोई कैसा भी संस्कार वाला हो लेकिन या दया वा कृपा की भावना वा दृष्टि पत्थर को भी पानी कर सकती है। अपोजीशन वाले अपनी पोजीशन में टिक सकते हैं। स्वभाव के टक्कर खाने वाले ठाकुर बन सकते हैं। क्रोध- अग्नि, योग-ज्वाला बन जायेगी। अनेक जन्मों के कड़े हिसाब-किताब सेकण्ड में समाप्त हो नया सम्बन्ध जुट जायेगा। कितना भी विरोधी है - वह इस विधि से गले मिलने वाले हो जायेंगे। लेकिन इन सबका आधार है -’’दया भाव''। दया भाव की आवश्यकता ऐसी परिस्थिति और ऐसे समय में है! समय पर नहीं किया तो क्या मास्टर दया के सागर कहलायेंगे? जिसमें दया भाव होगा वह सदा निराकारी, निर्विकारी और निरअहंकारी होगा। मंसा निराकारी, वाचा निर्विकारी, कर्मणा निरअहंकारी। इसको कहा जाता है दयालु और कृपालु आत्मा। तो, हे दया से भरपूर भण्डार आत्मायें, समय पर किसी आत्मा के प्रति दया भाव की अंचली भी नहीं दे सकते हो? भरपूर भण्डार से अंचली दे दो तो सारे ब्राह्मण परिवार की समस्यायें ही समाप्त हो जाएं। संस्कार तो आप सबके अनादि, आदि, अविनाशी दातापन के हैं। देवता अर्थात् देने वाला। संगम पर मास्टर दाता हो। आधाकल्प देवता देने वाले हो। द्वापर से भी आपके जड़ चित्र देने वाले देवता ही कहलाते हैं। तो सारे कल्प के संस्कार दातापन के हैं। ऐसे दातापन के संस्कार वाली, हे सम्पन्न आत्मायें, समय पर क्यों नहीं दाता बनते हो? लेने की भावना दाता के बच्चे कर नहीं सकते। यह दे तो मैं दूँ, यह देवता नहीं लेवता हो गये। तो कौन-सी आत्मायें हो? देवता वा लेवता?

हे इच्छा मात्रम् अविद्या आत्मायें, अल्पकाल वी इच्छा खातिर देवता के बजाय लेवता नहीं बनो। देते जाओ, देते हुए गिनती नहीं करो। मैंने इतना किया, इसने नहीं किया, यह गिनती करना दातापन के संस्कार नहीं! फराखदिल बाप के बच्चे यह बातें गिनती नहीं करते। भण्डारे भरपूर हैं, गिनती क्यों करते हो? सतयुग में भी कोई हिसाब-किताब गिनती नहीं रखते। रायल फैमिली, राज्यवंशी मास्टर दाता होते हैं। वहाँ यह सौदेबाजी नहीं होगी। इतना दिया, इतना किया। जो जितना ले उतना भरपूर बन जाए! राज्यवंश अर्थात् दाता का घर। तो यह संस्कार भरने के हैं। कहाँ भरने हैं? क्या सतयुग में? अभी से ही भरने हैं ना! यहाँ भी बाप से सौदेबा जी करते हैं। बाप ने हमको पूछा नहीं, बाप ने हमसे किया नहीं। और आपस में तो सौदेबाजी बहुत करते हैं। शाहनशाह बनो, दाता के बच्चे दाता बनो। इसने किया तब मैंने यह किया, इसने दो कहा तब मैंने चार कहा। इसने दो बारी कहा वा किया मैंने एक बारी किया। यह हिसाब-किताब दाता के बच्चे कर नहीं सकते। कोई आपको दे, न दे, लेकिन आप देते जाओ। इसको कहा जाता है - दयाभाव वा कृपा दृष्टि! तो, हे दयालु-कृपालु आत्मायें, देने वाले बनो। समझा?

बापदादा के पास सब बच्चों के खाते हैं। सारे दिन में कितना समय दयालु वा कृपालु बनते हैं और कितना समय देने की भावना के बजाए लेने की भावना रखते हैं, यह सारे दिन की लीला बापदादा भी देखते हैं। जैसे आप लोगों ने यह वीडियो सेट लगाया है तो देखते भी हो और सुनते भी हो, तो बापदादा के पास भी हरेक के लिए टी.वी. सेट है। जब चाहें तब स्वीच आन करें।

यह हैं सेवा के साधन और वह हैं बाप-बच्चों के हालचाल का साधन। वैसे तो अन्त में यह सब साधन समाप्त हो जायेंगे। यह वीडिओ नहीं काम में आयेगा लेकिन विल-पावर का सेट काम में आयेगा। लेकिन साइन्स वाले बच्चों ने जो इतना समय, एनर्जा, मनी खर्च करके साधन बनाया है, बच्चों की मेहनत बाप की सेवा में लग रही है। इसलिए बाप भी बच्चों की मेहनत देख खुश होते हैं कि सेवा के साधन अच्छे बनाये हैं! फिर भी हैं तो बच्चे ना! बाप, बच्चों की इन्वेन्शन देख खुश तो होंगे ना! जिस भी कार्य में लगे हुए हैं उसी कार्य में सफलता पा रहे हैं। चाहे अल्पकाल की हो लेकिन सफलता तो है ना! इसलिए बापदादा वीडियो सेट को नहीं देखते लेकिन उन बच्चों को देखते हैं। अच्छा।

इसी साधन द्वारा देश-विदेश के बच्चे चारों ओर देखेंगे और सुनेंगे तो बापदादा भी चारों ओर के सर्व बच्चों को, जो यही लगन लगाकर बैठे हैं कि आज मधुबन में क्या होगा! शरीर से विदेश वा देश में हैं लेकिन आकार रूप द्वारा मधुबन निवासी हैं। बापदादा उन सभी आकारी याद-स्वरूप आत्माओं को विशेष याद-प्यार दे रहे हैं। बापदादा डबल सभी देखते हैं, सिंगल नहीं। एक साकारी सभा, एक आकारी सभा। (चन्दू और शीला अमेरिका से आये हैं) यह भी सबकी याद ले आये हैं ना! सबकी याद पहुँच रही है। अच्छा-सभी के पत्रों का एक ही उत्तर है - वे बाप को याद करते, बाप पदमगुणा उन बच्चों को याद करते हैं। जैसे वे दिन गिन रहे हैं वैसे बाप हर बच्चे के गुणों की माला सदा स्मरण करते हैं। सभी बच्चों का एक ही मिलन का संकल्प है और बापदादा भी ऐसे मिलन मनाने वाले, संकल्प रखने वाली आत्माओं को विशेष अमृतवेले के मिलन में मिलन मनाए रेसपान्ड देते हैं और सर्व को सेवा के प्रति विशेष संकल्प देते रहते हैं। अच्छा।

ऐसे सदा दयाभाव और कृपा दृष्टि रखने वाले, सदा देने वाले, लेने की कामना नहीं रखने वाले, इच्छा मात्रम् अविद्या - ऐसी स्थिति में रहने वाले, ऐसे राज्यवंश संस्कार वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

गुजरात जोन (पार्टियों से पर्सनल मुलाकात)

सदा अपने को महावीर अर्थात् महान आत्मा समझकर चलते हो? किसके बने हैं और क्या बने हैं सिर्फ यह भी सोचो तो कभी भी व्यक्त भाव में नहीं आ सकते। व्यक्त भाव से ऊपर रहो अर्थात् फरिश्ते बन सदा ऊपर उड़ते रहो। फरिश्ते नीचे नहीं आते, धरती पर पाँव नहीं रखते। यह व्यक्त भाव भी देह की धरनी है। तो जब फरिश्ते बन गये फिर देह की धरनी में कैसे आ सकते, फरिश्ता अर्थात् उड़ने वाले। तो सभी उड़ता पंछी हो, पिंजड़ेवाले तो नहीं हो ना? आधाकल्प तो पिंजरे के थे अब उड़ते पंछी हो गये। स्वतन्त्र हो गये। नीचे की आकर्षण अभी खींच नहीं सकती। नीचे होंगे तो शिकारी शिकार कर देंगे, ऊपर उड़ते रहेंगे तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तो सभी उड़ता पंछी हो ना? पिंजरा खत्म हो गया? चाहे कितना भी सुन्दर पिंजरा हो लेकिन है तो बंधन ना! यह अलौकिक सम्बन्ध भी सोने का पिंजरा है, इसमें भी नहीं फंसना। स्वतन्त्र तो स्वतन्त्र। सदा बन्धनमुक्त रहने वाले ही जीवनमुक्त स्थिति का अनुभव कर सकेंगे। अच्छा।